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TV शो देखकर अनावश्यक रस्म रिवाज के गांव में प्रचलन से फिजूल खर्ची के चक्कर में बेचारा गरीब परेशान


TV शो देखकर अनावश्यक रस्म रिवाज के गांव में प्रचलन से फिजूल खर्ची के चक्कर में बेचारा गरीब परेशान

विचार

अम्बेडकर नगर जिले के विकास खण्ड़ जहांगीरगंज गांव के क्षेत्रों में लोग टीवी शो देखकर अनावश्यक रस्म रिवाज देख कर गांव देहात में अनावश्यक प्रचलन से लोग रस्म पूरा करने में गरीब परिवार परेशान हो रहे हैं। गांव देहात ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे घरों में फिजूल खर्ची में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है जिनके मां-बाप हाड़-तोड़ मेहनत और पसीने की कमाई से पाई-पाई जोड़ कर मकान का ढांचा खड़ा किये लेकिन नवयौवन लड़के-लड़कियां बिना समझे अपने मां- बाप की हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्चा करते हैं। पंकज कुमार ने बताया कि इस कलयुग के दौर में लोग एक-दूसरे को देख कर नकल कर आगे बढ़ने के प्रयास में अनावश्यक रीति रिवाज में शहरी रीति रिवाज गांव देहात में तेजी से फैला रहे हैं जिससे गरीब लोग परेशान हो जा रहे हैं। आज कल ग्रामीण क्षेत्रों व गांव जवार में होने वाली विवाह शादियों में नई रस्म को जन्म दे रहे हैं। इन रिवाज के दौरान हजारों रूपये खर्च कर के विशेष डेकोरेशन किया जाता है। उस दिन दूल्हा या दुल्हन विशेष वस्त्र धारण करते हैं। 2019 से पूर्व इस रस्म का प्रचलन TV शो में देखा जाता था लेकिन अब दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलने वाली रस्म पिछले दो- तीन साल से क्षेत्र में बहुत तेजी से ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ा है। पहले हल्दी की रस्म के पीछे कोई दिखावा नहीं होता था। बल्कि तार्किकता होती थी। गांवो देहात क्षेत्रों में आज की तरह साबुन व शैम्पू नहीं थे और न ही ब्यूटी पार्लर था। इसलिए हल्दी के उबटन से दूल्हे-दुल्हन के चेहरे व शरीर से चमड़ी पर जमा मैल को हटाने, चेहरे को मुलायम और चमकदार बनाने के लिए हल्दी, चंदन, आटा, दूध से तैयार उबटन का प्रयोग किया जाता था। ताकि दूल्हा-दुल्हन सुंदर लगे। इस काम की जिम्मेदारी घर- परिवार की महिलाओं की होती थी। लेकिन आजकल की हल्दी रस्म मोडिफाइड, दिखावटी और मंहगी हो गई है। जिसमें हजारों रूपये खर्च कर डेकोरेशन किया जाता है। महिला, पुरुष द्वारा महंगे पीले वस्त्र पहने जाते है। दूल्हा दुलहन के घर जाता है और पूरे वातावरण, कार्यक्रम को पीताम्बरी बनाने के भरसक प्रयास किये जाते हैं। यह पीला ड्रामा घर के मुखिया के माथे पर तनाव की लकीरें खींचता है जिससे चिंतामयी पसीना टपकता है। पहले के समय में जहां कच्ची छतों के नीचे पक्के इरादों के साथ दूल्हा-दुल्हन बिना किसी दिखावे के फेरे लेकर अपना जीवन आनंद के साथ शुरू करते थे, आज पक्के इरादे कम और दिखावा और बनावटीपन ज्यादा होने लगा है। आजकल देखने में आ रहा है कि गांवों में आर्थिक रूप से अक्षम परिवार के लड़के भी शहरी बनावटीपन में शामिल होकर परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ा रहे है। इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि के लिए रील बनती हैं। बेटे के रील बनाने के चक्कर में बाप की कर्ज उतरने में ही रील बन जा रही है। गांवो क्षेत्रों में ऐसे घरों में फालतू खर्चो में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है जिनके मां-बाप ने हाड़-तोड़ मेहनत और पसीने की कमाई से पाई-पाई जोड़ कर मकान का दांचा खड़ा कर इसे बनाने की चाहत यह लड़के-लड़कियां बिना समझे अपने मां-बाप को हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्चा करते हैं। परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी न हो उन परिवारों के बच्चों को मां-बाप से जिद्द करके इस तरह की फिजूल खर्ची नहीं करवानी चाहिए। बड़ी चिंता होती है कि युवा व भाई-बहिन किस दिशा में जा रहे हैं। आज किसी को पैरों के घूंघरू को आवाज सुनने की फुर्सत नहीं है क्योंकि सब-के-सब फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर खुद को बढ़ा-चढ़ाकर कर परोसते हैं, दिखावटीपन की चाशनी में आकंठ डूबे हुए है। व्यक्ति बाजार की चकाचौंध की गिरफ्त में जल्दी आता जा रहा है और पूर्णतः बाजारु दिखावा पन का शिकार हो जा रहा है। फिजूलखर्ची वाली रस्म को अब रोका जाना नितांत आवश्यक है ताकि घर, परिवार, समाज, गांव सुखी रह सके। फोटो खिंचवाकर स्टेटस लगाना बहादुरी नहीं अपितु माता-पिता के अरमान को परवान चढ़ा़ाना हम नौजवानों की जिम्मेदारी होनी चाहिए। 

आपका- पंकज कुमार 

नोट, यह लेखक के अपने विचार हैं, संस्था का इससे कोई लेना-देना नहीं है।

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